नारदजी द्वारा स्तुति
देवर्षि नारद भगवान के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैषी हैं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा केशी असुर का वध किये जाने पर नारद जी कंस के यहाँ से लौटकर अनायास ही अदभुत कर्म करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के पास आये और एकान्त में उनकी इस प्रकार से स्तुति करने लगेः
'सच्चिदानंदस्वरूप श्री कृष्ण ! आपका स्वरूप मन और वाणी का विषय नहीं है। आप योगेश्वर हैं। सारे जगत का नियंत्रण आप ही करते हैं। आप सबके हृदय में निवास करते हैं और सब-के-सब आपके हृदय में निवास करते हैं। आप भक्तों के एकमात्र वांछनीय, यदुवंश शिरोमणि और हमारे स्वामी हैं। जैसे एक ही अग्नि सभी लकड़ियों में व्याप्त रहती है, वैसे एक ही आप समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। आत्मा के रूप में होने पर भी आप अपने को छिपाये रखते हैं क्योंकि आप पंचकोशरूप गुफाओं के भीतर रहते हैं। फिर भी पुरुषोत्तम के रूप में, सबके नियन्ता के रूप में और सबके साक्षी के रूप में आपका अनुभव होता ही है। प्रभो !आप सबके अधिष्ठान और स्वयं अधिष्ठानरहित हैं। आपने सृष्टि के प्रारम्भ में अपनी माया से ही गुणों की सृष्टि की और उन गुणों को ही स्वीकार करके आप जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। यह सब करने के लिए आपको अपने से अतिरिक्त और किसी भी वस्तु की आवश्यकता नही है। क्योंकि आप सर्वशक्तिमान और सत्यसंकल्प हैं। वही आप दैत्य, प्रमथ और राक्षसों का, जिन्होंने आजकल राजाओं का वेष धारण कर रखा है, विनाश करने के लिए तथा धर्म की मर्यादाओं की रक्षा करने के लिए यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। यह बड़े आनंद की बात है कि आपने खेल-ही-खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। इसकी हिनहिनाहट से डरकर देवता लोग अपना स्वर्ग छोड़कर भाग जाया करते थे।
प्रभो ! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को मरते हुए देखूँगा। उसके बाद शंखासुर, कालयवन, मुर और नरकासुर का वध देखूँगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे और जगदीश्वर ! आप द्वारिका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान से ले आयेंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे पुत्रों को ला देंगे।
इसके पश्चात् आप पौण्ड्रक-मिथ्या वासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को, वहाँ से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे। प्रभो !द्वारिका में निवास करते समय आप और भी बहुत-से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें आगे चलकर पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशाली पुरुष गायेंगे। मैं वह सब देखूँगा। इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए काल रूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखों से देखूँगा।
विशुद्धविज्ञानघनं स्वसंस्थया समाप्तसर्वार्थममोघवांछितम्।
स्वतेजसा नित्यनिवृत्तमायागुणप्रवाहं भगवन्तमीमहिं।।
प्रभो ! आप विशुद्ध विज्ञानघन हैं। आपके स्वरूप में और किसी का अस्तित्व है ही नहीं। आप नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरूप में स्थित रहते हैं। इसलिए ये सारे पदार्थ आपको नित्य प्राप्त ही हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्ति के सामने माया और माया से होने वाला वह त्रिगुणमय संसारचक्र नित्यनिवृत्त है, कभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिदानंदस्वरूप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
(श्रीमद् भागवतः 10.37.23)
आप सबके अंतर्यामी और नियन्ता हैं। अपने-आप में स्थित, परम स्वतन्त्र है। जगत र उसके अशेष-विशेष, भाव-अभावरूप सारे भेद-विभेदों की कल्पना केवल आपकी माया से ही हुई है। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिए मनुष्य का सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और आप यदु, वृष्णि तथा सात्वतवंशियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।'
(श्रीमद् भागवतः 10.37,11-24)
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