प्रह्लाद द्वारा स्तुति

परमभक्त प्रह्लाद के क्रूर पिता हिरण्यकशिपु को नृसिंह भगवान ने अपने नखरूपी शस्त्रों द्वारा विदीर्ण कर डाला परंतु फिर भी उनका उग्र कोप शांत नहीं हो रहा था। देवताओं ने उन्हें शांत करने के लिए लक्ष्मीजी से प्रार्थना की किंतु वे भी भगवान के पास जाने से डर रही थी, तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने भक्तराज प्रह्लाद को भेजा। भक्त प्रह्लाद शरणागतवत्सल भगवान के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वी पर साष्टांग लोट गये। नन्हें-से बालक को अपने चरणों में नतमस्तक देखकर प्रभु का उग्र कोप शांत हो गया। उन्होंने प्रह्लाद को उठाकर जैसे ही अपना करकमल उनके सिर पर रखा, भक्त प्रह्लाद को परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो गया। उनके हृदय में प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रों से आनंदाश्रु झरने लगे। वे प्रभु के गुणों का चिन्तन करते हुए गदगद वाणी से भावपूर्वक श्रीहरि की इस प्रकार से स्तुति करने लगेः 
'ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्धपुरुषों की बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुण में ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धाराप्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणों से आपको अब तक भी संतुष्ट नहीं कर सके, फिर मैं तो घोर असुर जाति में उत्पन्न हुआ हूँ। क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं?
मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरूष, बुद्धि और योग ये सभी गुण परम पुरुष भगवान को संतुष्ट करने में समर्थ नहीं हैं, परंतु भक्ति से तो भगवान गजेन्द्र पर भी संतुष्ट हो गये थे। मेरी समझ से इन बारह गुणों से युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान कमलनाभ के चरणकमलों से विमुख हो तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने, मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान के चरणों में समर्पित कर रखे हैं, क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुल तक को पवित्र कर देता और बड़प्पन का अभिमान रखनेवाला वह ब्राह्मण अपने को भी पवित्र नहीं कर सकता। सर्वशक्तिमान प्रभु अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही परिपूर्ण हैं। उन्हें अपने लिए क्षुद्र पुरुषों से पूजा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। वे करूणावश ही भोले भक्तों के हित के लिए उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुख का सौन्दर्य दर्पण में दिखनेवाले प्रतिबिम्ब को भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है। इसलिए सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होने पर भी मैं बिना किसी शंका के अपनी बुद्धि के अनुसार सब प्रकार से भगवान की महिमा का वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमा के गान का ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसारचक्र में पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है।
भगवन् ! आप सत्त्व गुण के आश्रय हैं। ये ब्रह्मा आदि सभी देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हैं। ये हम दैत्यों की तरह आपसे द्वेष नहीं करते। प्रभो ! आप बड़े-बड़े सुन्दर अवतार लेकर इस जगत के कल्याण एवं अभ्युदय के लिए तथा उसे आत्मानंद की प्राप्ति कराने के लिए अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं। जिस असुर को मारने के लिए आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका है। अब आप अपना क्रोध शांत कीजिए। जैसे बिच्छू और साँप की मृत्यु से सज्जन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैत्य संहार से सभी लोगों को बड़ा सुख मिला है। अब सब आपके शांत स्वरूप के दर्शन की बाट जोह रहे हैं। नृसिंहदेव ! भय से मुक्त होने के लिए भक्तजन आपके इस रूप का स्मरण करेंगे।
नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्यजिह्वार्कनेत्रभ्रुकुटीरभसोग्रंदष्ट्रात्।
आन्त्रस्रजः क्षतजकेसरशंकुकर्णाग्निर्ह्लाभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात्।।
परमात्मन् ! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आँखें सूर्य के समान हैं। भौहें चढ़ी हुई हैं। दढ़ें बड़ी पैनी हैं। आँतों की माला, गरदन के बाल खून से लथपथ, बर्छे की तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजों को भी भयभीत देने वाला सिंहनाद एवं शत्रुओं को फाड़ डालने वाले आपके इन नखों को देखकर मैं तनिख भी भयभीत नहीं हुआ हूँ। 
(श्रीमद् भागवतः 7.9.15)
दीनबन्धो ! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उग्र संसारचक्र में पिसने से। मैं अपने कर्मपाशों से बँधकर इन भयंकर जंतुओं के बीच में डाल दिया गया हूँ। मेरे स्वामी ! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलों में बुलायेंगे, जो समस्त जीवों की एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं। अनन्त ! मैं जिन-जिन योनियों में गया, उन सभी योनियों में प्रिय के वियोग और अप्रिय क संयोग से होने वाले शोक की आग में झुलसता रहा। उन दुःखों को मिटाने की जो दवा है, वह भी दुःखरूप ही है। मैं न जाने कब से अपने से अतिरिक्त वस्तुओं को आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ। प्रभो ! आप हमारे प्रिय हैं, अहेतुक हितैषी सुहृद हैं। आप री वास्तव में सबके परमाराध्य हैं। मैं ब्रह्माजी के द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाओं का गान करता हुआ बड़ी सुगमता से रागादि प्राकृत गुणों से मुक्त होकर इस संसार की कठिनाइयों को पार कर जाऊँगा, क्योंकि आपके चरणयुगलों में रहने वाले भक्त परमहंस महात्माओं का संग तो मुझे मिलता ही रहेगा। भगवान नृसिंह ! इस लोक में दुःखी जीवों का दुःख मिटाने के लिए जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करने पर एक क्षण के लिए ही होता है। यहाँ तक कि माँ-बाप बालक की रक्षा नहीं कर सकते, औषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्र में डूबते हुए को नौका नहीं बचा सकती।
यस्मिन्यतो यर्हि येन च यस्य यस्माद् यस्मै यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा।
भावः करोति विकरोति पृथक्स्वभावः  संचोदितस्तदखिलं भवतः स्वरूपम्।।
सत्त्वादि गुणों के कारण भिन्न-भिन्न स्वभाव के जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उनको प्रेरित करने वाले आप ही हैं। वे आपकी प्रेरणा से जिस आधार में स्थित होकर, जिस निमित्त से, जिन मिट्टी आदि उपकरणों से, जिस समय, जिन साधनों के द्वारा, जिस अदृष्ट आदि की सहायता से, जिस प्रयोजन के उद्देश्य से, जिस विधि से, जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है।
(श्रीमद् भागवतः 7.9.20)
पुरुष की अनुमति से काल के द्वारा गुणों में क्षोभ होने पर माया मनःप्रधान लिंगशरीर का निर्माण करती हैं। यह लिंग शरीर बलवान, कर्ममय एवं अनेक नाम-रूपों में आसक्त छंदोमय है। यही अविद्या के द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्रा – इन सोलह विकाररूप अरों से युक्त संसार चक्र में डालकर ईख के समान मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतन्यशक्ति से बुद्धि के समस्त गुणों को सर्वदा पराजित रखते हैं और कालरूप से सम्पूर्ण साध्य और साधनों को अपने अधीन रखते हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे इनसे बचाकर अपनी सन्निधि में खींच लीजिए। भगवन् ! जिनके लिए संसारी लोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्ग में मिलनेवाली समस्त लोकपालों की वह आयु, लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने खूब देख लिए। जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौंहें थोड़ी टेढ़ी हो जाती थीं, तब उन स्वर्ग की सम्पत्तियों के लिए कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था। वे लुटती फिरती थीं किंतु आपने मेरे उन पिता को भी मार डाला। इसलिए मैं ब्रह्मलोक तक की आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और वे इन्द्रियभोग, जिन्हें संसार के प्राणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यंत शक्तिशाली काल का रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है। इसलिए मुझे आप अपने दासों की सन्निधि में ले चलिए। विषयभोग की बातें सुनने में ही अच्छी लगती हैं, वास्तव में वे मृगतृष्णा के जल के समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे वे भोग भोगे जाते हैं अगणित रोगों का उदगम स्थान है। कहाँ वे मिथ्या विषयभोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर ! इन दोनों की क्षणभंगुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इनसे विरक्त नहीं होता। वह कठिनाई से प्राप्त होने वाले भोग के नन्हें-नन्हे मधुबिंदुओं से अपनी कामना की आग बुझाने की चेष्टा करता है। प्रभो ! कहाँ तो इस तमोगुणी असुरवंश में रजोगुण से उत्पन्न हुआ मैं और कहाँ आपकी अनन्त कृपा ! धन्य है आपने अपना परम प्रसादस्वरूप और सकल सन्तापहारी वह करकमल मेरे सिर पर रखा है, जिसे आपने ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मीजी के सिर पर भी कभी नहीं रखा। दूसरे संसारी जीवों के समान आपमें छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं है क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं। फिर भी कल्पवृक्ष के समान आपका कृपा-प्रसाद भी सेवन-भजन से ही प्राप्त होता है। सेवा के अनुसार ही जीवों पर आपकी कृपा का उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है। भगवन् ! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालरूपी सर्प डँसने के लिए सदा तैयार रहता है। विषयभोगों की इच्छावाले पुरुष उसी में गिरे हुए हैं। मैं भी संगवश उनके पीछे उसी में गिरने जा रहा था परंतु भगवन् ! देवर्षि नारद ने मुझे अपनाकर बचा लिया। तब भला, मैं आपके भक्तजनों की सेवा कैसे छोड़ा सकता हूँ। अनन्त ! जिस समय मेरे पिता ने अन्याय करने के लिए कमर कसकर हाथ में खड्ग ले लिया और कहने लगे कि 'यदि मेरे सिवा कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले, मैं तेरा सिर काटता हूँ' उस समय आपने मेरे प्राणों की रक्षा की और मेरे पिता का वध किया। मैं तो समझता हूँ कि आपने-अपने प्रेमी भक्त सनकादि ऋषियों का वचन सत्य करने के लिए ही वैसा किया था।
भगवन् ! यह सम्पूर्ण जगत एकमात्र आप ही हैं क्योंकि इसके आदि में आप ही कारणरूप से थे, अंत में आप ही अवधि के रूप में रहेंगे और बीच में इसकी प्रतीति के रूप में भी केवल आप ही हैं। आप अपनी माया से गुणों के परिणामस्वरूप इस जगत की सृष्टि करके इसमें पहले से विद्यमान रहने पर भी प्रवेश की लीला करते हैं और उन गुणों से युक्त होकर अनेक मालूम पड़ रहे हैं। भगवान ! यह जो कुछ कार्य-कारण के रूप में प्रतीत हो रहा है, वह सब आप ही हैं और इससे भिन्न भी आप ही हैं। अपने-पराये का भेदभाव तो अर्थहीन शब्दों की माया है, क्योंकि जिससे जिसका जन्म, स्थिति, लय और प्रकाश होता है, वह उसका स्वरूप ही होता है। जैसे, बीज और वृक्ष कारण और कार्य की दृष्टि से भिन्न-भिन्न हैं, तो भी गंध-तन्मात्र की दृष्टि से दोनों एक ही हैं। 
भगवन् ! आप इस सम्पूर्ण विश्व को स्वयं ही अपने में समेटकर आत्मसुख का अनुभव करते हुए निष्क्रिय होकर प्रलयकालीन जल में शयन करते हैं। उस समय अपने स्वयंसिद्ध योग के द्वारा बाह्य दृष्टि को बंद कर आप अपने स्वरूप के प्रकाश में निद्रा को विलीन कर लेते हैं और तुरीय ब्रह्मपद में स्थित रहते हैं। उस समय आप न तो तमोगुण से ही युक्त होते और न तो विषयों को ही स्वीकार करते हैं। आप अपनी कालशक्ति से प्रकृति के गुणों को प्रेरित करते हैं, इसलिए यह ब्रह्माण्ड आपका ही शरीर है। पहले यह आपमें ही लीन था। जब प्रलयकालीन जल के भीतर शेषशय्या पर शयन करने वाले आपने योगनिद्रा की समाधि त्याग दी, तब वट के बीज विशाल वृक्ष के समान आपकी नाभि से ब्रह्माण्ड कमल उत्पन्न हुआ। उस पर सूक्ष्मदर्शी ब्रह्माजी प्रकट हुए। जब उन्हें कमल के सिवा और कुछ भी दिखायी न पड़ा, तब वह अपने बीजरूप से व्याप्त आपको वे न जान सके और आपको अपने से बाहर समझकर जल के भीतर घुसकर सौ वर्ष तक ढूँढते रहे। परंतु वहाँ उन्हें कुछ नहीं मिला। यह ठीक ही है, क्योंकि अंकुर उग आने पर उसमें व्याप्त बीज को कोई बाहर अलग कैसे देख सकता है। ब्रह्माजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हार कर कमल पर बैठ गये। बहुत समय बीतने पर जब उनका हृदय शुद्ध हो गया, तब उन्हें भूत, इन्द्रिय और अंतःकरण रूप अपने शरीर में ही ओतप्रोत रूप से स्थित आपके सूक्ष्मरूप का साक्षात्कार हुआ। ठीक वैसे ही जैसे पृथ्वी में व्याप्त उसकी सूक्ष्म तन्मात्रा गन्ध का होता है।
विराट पुरुष सहस्रों मुख, चरण, सिर, हाथ, जंघा, नासिका, मुख, कान, नेत्र, आभूषण और आयुधों से सम्पन्न था। चौदह लोक उनके विभिन्न अंगों के रूप में शोभायमान थे। वह भगवान की एक लीलामयी मूर्ति थी। उसे देखकर ब्रह्माजी को बड़ा आनंद हुआ। रजोगुण और तमोगुण रूप मधु और कैटभ नाम के दो बड़े बलवान दैत्य थे। जब वे वेदों को चुराकर ले गये, तब आपने हयग्रीव अवतार ग्रहण किया और उन दोनों को मारकर सत्त्वगुणरूप श्रुतियाँ ब्रह्माजी को लौटा दीं। वह सत्त्वगुण ही आपका अत्यंत प्रिय शरीर है – महात्मा लोग इस प्रकार वर्णन करते हैं। पुरुषोत्तम ! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकों का पालन किया तथा विश्व के द्रोहियों का संहार करते हैं। इन अवतारों के द्वारा आप प्रत्येक युग में उसके धर्मों की रक्षा करते हैं। कलियुग में आप छिपकर गुप्त रूप से ही रहते हैं, इसीलिए आपका एक नाम 'त्रियुग' भी है।
वैकुण्ठनाथ ! मेरे मन की बड़ी दुर्दशा है। वह पाप-वासनाओं से तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यंत दुष्ट है। वह प्रायः ही कामनाओं के कारण आतुर रहता है और हर्ष-शोक, भय, लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र आदि की चिंताओं से व्याकुल रहता है। इसे आपकी लीला-कथाओं में तो रस ही नहीं मिलता। इसके मारे मैं दीन हो रहा हूँ। ऐसे मन से मैं आपके स्वरूप का चिंतन कैसे करूँ? अच्युत ! यह कभी न अघानेवाली जीभ मुझे स्वादिष्ट रसों की ओर खींचती रहती है। जननेन्द्रिय सुन्दर स्त्री की ओर, त्वचा सुकोमल, स्पर्श की ओर, पेट भोजन की , कान मधुर अनुक्रम संगीत की ओर, नासिका भीनी-भीनी सुगंध की ओर, और ये चपल नेत्र सौन्दर्य की ओर मुझे खींचते रहते हैं। इनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयों की ओर ले जाने के लिए जोर लगाती ही रहती हैं। मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुष की बहुत सी पत्नियाँ उसे अपने-अपने शयनगृह में ले जाने से लिए चारों ओर से घसीट रही हों। इस प्रकार यह जीव अपने कर्मों के बंधन में पड़कर इस संसार रूप वैतरणी नदी में गिरा हुआ है। जन्म से मृत्यु, मृत्यु से जन्म और दोनों के द्वारा कर्मभोग करते-करते यह भयभीत गया है। यह अपना है, यह पराया है – इस प्रकार के भेदभाव से युक्त होकर किसी से मित्रता करता है तो किसी से शत्रुता। आप इस मूढ़ जीव-जाति की यह दुर्दशा देखकर करूणा से द्रवित हो जाइये। इस भवनदी से सर्वदा पार रहने वाले भगवन् ! इन प्राणियों को भी अब पार लगा दीजिये। जगदगुरो ! आप इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति तथा पालन करने वाले हैं। ऐसी अवस्था में इन जीवों को इस भवनदी से पार उतार देने में आपको क्या परिश्रम है? दीनजनों के परम हितैषी प्रभो ! भूले-भटके मूढ़ ही महान पुरुषों के विशेष अनुग्रहपात्र होते हैं। हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम आपके प्रियजनों की सेवा में लगे रहते हैं, इसलिए पार जाने की हमें कभी चिंता ही नहीं होती। परमात्मन् ! इस भव-वैतरणी से पार उतरना दूसरे लोगों के लिए अवश्य ही कठिन है, परंतु मुझे तो इससे तनिक भी भय नहीं है। क्योंकि मेरा चित्त इस वैतरणी में नहीं, आपकी उन लीलाओं के गान में मग्न रहता है, जो स्वर्गीय अमृत को भी तिरस्कृत करने वाली, परम अमृतस्वरूप हैं। मैं उन मूढ़ प्राणियों के लिए शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगान से विमुख रहकर इन्द्रियों के विषयों का मायामय झूठा सुख प्राप्त करने के लिए अपने सिर पर सारे संसार का भार ढोते रहते हैं। मेरे स्वामी ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्रायः अपनी मुक्ति के लिए निर्जन वन में जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दूसरों की भलाई के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते परंतु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय गरीबों को छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता और इन भटकते हुए प्राणियों के लिए आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखाया पड़ता।
घर में फँसे हुए लोगों को जो मैथुन आदि का सुख मिलता है, वह अत्यंत तुच्छ एवं दुःखरूप ही है। जैसे, कोई दोनों हाथों से खुजला रहा हो तो उस खुजली में पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम पड़ता है, परंतु पीछे दुःख-ही-दुःख होता है। किंतु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दुःख भोगने पर भी इन विषयों से अघाते नहीं। इसके विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहट को सह लेते हैं, वैसे ही कामादि वेगों को भी सह लेते हैं। सहने से ही उनका नाश होता है। पुरुषोत्तम ! मोक्ष के दस साधन प्रसिद्ध हैं – मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियों से शास्त्रों की व्याख्या, एकांत सेवन, जप और समाधि। परंतु जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उनके लिए ये सब जीविका के साधन व्यापार मात्र रह जाते हैं और दम्भियों के लिए तो जब तक उनकी पोल खुलती नहीं, तभी तक ये जीवन-निर्वाह के साधन रहते हैं और भंडाफोड़ हो जाने पर वह भी नहीं। वेदों ने बीज और अंकुर के समान आपके दो रूप बताये हैं – कार्य और कारण। वास्तव में आप प्राकृत रूप से रहित हैं परंतु इन कार्य और कारणरूपों को छोड़कर आपके ज्ञान का कोई और साधन भी नहीं है, उसी प्रकार योगिजन भक्तियोग की साधना से आपको कार्य और कारण दोनों में ही ढूँढ निकालते हैं। क्योंकि वास्तव में ये दोनों आपसे पृथक नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं। अनन्त प्रभो ! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पंचतन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन, चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत एवं सगुण और निर्गुण, सब कुछ केवल आप ही हैं और तो क्या, मन और वाणी के द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे पृथक नहीं है। समग्र कीर्ति के आश्रय भगवन् ! ये सत्त्वादि गुण और इन गुणों के परिणाम महत्तत्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जानने में समर्थ नहीं है क्योंकि ये सब आदि-अंतवाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त हैं। ऐसा विचार करके ज्ञानीजन शब्दों की माया से उपरत हो जाते हैं। परम पूज्य ! आपकी सेवा के छः अंग हैं – नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मों का समर्पण, सेवा – पूजा, चरणकमलों का चिंतन और लीला-कथा का श्रवण। इस षडंग-सेवा के बिना आपके चरणकमलों की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? और भक्ति के बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी? प्रभो ! आप तो अपने परम प्रिय भक्तजनों के, परमहंसों के ही सर्वस्व हैं।
(श्रीमद् भागवतः 7.9.8-50)

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