अक्रूर जी द्वारा स्तुति

अक्रूर जी ने श्रीकृष्ण तथा बलरामजी के साथ व्रज से मथुरा नगरी लौटते समय यमुनाजी  स्नान के पश्चात् गायत्री मंत्र का जप करते हुए जब जल में डुबकी लगायी, तब उन्होंने शेषजी की गोद में विराजमान शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात् दर्शन किये थे। भगवान की अदभुत झाँकी देखकर उनका हृदय परमानंद से लबालब भर गया और प्रेमभाव का उद्रेक चरणों में नतमस्तक होकर गदगद स्वर में प्रभु की इस प्रकार से स्तुति करने लगेः
'प्रभो ! आप प्रकृति आदि समस्त कारणों के परम कारण हैं। आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमल से उन ब्रह्माजी का आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत की सृष्टि की है। मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषय और उनके अधिष्ठातृ देवता – यही सब चराचर जगत तथा उसके व्यवहार के कारण हैं और ये सब-के-सब आपके ही अंगस्वरूप हैं। प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न होने वाले समस्त पदार्थ 'इंदवृत्ति' के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिए ये सब अनात्मा हैं। अनात्मा होने के कारण जड़ हैं और इसलिए आपका स्वरूप नहीं जान सकते क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे। ब्रह्माजी अवश्य ही आपके स्वरूप हैं। परंतु वे प्रकृति के गुण रजस से युक्त हैं, इसलिए वे भी आपकी प्रकृति का और उसके गुणों से परे का स्वरूप नहीं जानते। साधु योगी स्वयं अपने अंतःकरण में स्थित 'अन्तर्यामी' के रूप में समस्त भूत-भौतिक पदार्थों में व्याप्त 'परमात्मा के रूप में और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डल में स्थित 'इष्टदेवता' के रूप में तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियन्ता ईश्वर के रूप में साक्षात् आपकी ही उपासना करते हैं। बहुत-से कर्मकाण्डी ब्राह्मण कर्ममार्ग का उपदेश करने वाली त्रयीविद्या के द्वारा, जो आपके इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देववाचक नाम तथा वज्रहस्त, सप्तार्चि आदि अनेक रूप बतलाती हैं, बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं। बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त कर्मों का संन्यास कर देते हैं और शांतभाव में स्थित हो जाते हैं। वे इस प्रकार ज्ञानयज्ञ के द्वारा ज्ञानस्वरूप आपकी ही आराधना करते हैं।
और भी बहुत-से संस्कार-सम्पन्न अथवा शुद्धचित्त वैष्णवजन आपकी बतलायी हुई पांचरात्र आदि विधियों से तन्मय होकर आपके चतुर्व्यूह आदि अनेक और नारायणरूप एक स्वरूप की पूजा करते हैं। भगवन् ! दूसरे लोग शिवजी के द्वारा बतलाये हुए मार्ग से, जिसके आचार्य-भेद से अनेक अवान्तर-भेद भी हैं, शिवस्वरूप आपकी ही पूजा करते हैं। स्वामिन् ! जो लोग दूसरे देवताओं की भक्ति करते हैं और उन्हें आपसे भिन्न समझते हैं, वे सब भी वास्तव में आपकी ही आराधना करते हैं, क्योंकि आप ही समस्त देवताओं के रूप में हैं और सर्वेश्वर भी हैं। प्रभो ! जैसे पर्वतों से सब ओर बहुत-सी नदियाँ निकलती हैं और वर्षा के जल से भरकर घूमती-घामती समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही सभी प्रकार के उपासना-मार्ग घूम-घामकर देर-सवेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं।
प्रभो ! आपकी प्रकृति के तीन गुण हैं – सत्त्व, रज और तम। ब्रह्मा से लेकर स्थावरपर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव प्राकृत हैं और जैसे वस्त्र सूत्रों से ओतप्रोत रहते हैं, वैसे ही ये सब प्रकृति के उन गुणों से ही ओतप्रोत हैं। परंतु आप सर्वस्वरूप होने पर भी उनके साथ लिप्त नहीं हैं। आपकी दृष्टि निर्लिप्त है, क्योंकि आप समस्त वृत्तियों के साक्षी हैं। यह गुणों के प्रवाह से होने वाली सृष्टि अज्ञानमूलक है और वह देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त योनियों में व्याप्त है, परंतु उससे सर्वथा अलग हैं। इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ। अग्नि आपका मुख है। पृथ्वी चरण है। सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। आकाश नाभि है। दिशाएँ कान हैं। स्वर्ग सिर है। देवेन्द्रगण भुजाएँ हैं। समुद्र कोख है यह वायु ही आपकी प्राणशक्ति के रूप मे उपासना के लिए कल्पित हुई है।
वृक्ष और औषधियाँ रोम हैं। मेघ सिर के केश हैं। पर्वत आपके अस्थिसमूह और नख हैं। दिन और रात पलकों का खोलना और मीचना है। प्रजापति जननेन्द्रिय हैं और वृष्टि ही आपका वीर्य है। अविनाशी भगवन् ! जैसे जल में बहुत-से जलचर जीव और गूलर के फलों में नन्हें-नन्हें कीट रहते हैं, उसी प्रकार उपासना के लिए स्वीकृत आपके मनोमय पुरुष रूप में अनेक प्रकार के जीव-जन्तुओं से भरे हुए लोक और उनके लोकपाल कल्पित किये गये हैं। प्रभो ! आप क्रीडा करने के लिए पृथ्वी पर जो-जो रूप धारण करते हैं, वे सब अवतार लोगों के शोक-मोह को धो बहा देते हैं और फिर सब लोग बड़े आनन्द से आपके निर्मल यश का गान करते हैं। प्रभो ! आपने वेदों, ऋषियों, औषधियों और सत्यव्रत आदि की रक्षा-दीक्षा के लिए मत्स्यरूप धारण किया था और प्रलय के समुद्र में स्वच्छन्द विहार किया था। आपके मत्स्यरूप को मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही मधु और कैटभ नाम के असुरों का संहार करने के लिए हयग्रीव अवतार ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूप को भी नमस्कार करता हूँ।
आपने ही वह विशाल कच्छपरूप ग्रहण करके मन्दराचल को धारण किया था, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही पृथ्वी के उद्धार की लीला करने के लिए वराहरूप स्वीकार किया था, आपको मेरे बार-बार नमस्कार। प्रह्लाद जैसे साधुजनों का भेदभय मिटाने वाले प्रभो ! आपके उस अलौकिक नृसिंहरूप को मैं नमस्कार करता हूँ। आपने वामनरूप ग्रहण करके अपने पगों से तीनों लोक नाप लिये थे, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। धर्म का उल्लंघन करनेवाले घमंडी क्षत्रियों के वन का छेदन कर देने के लिए आपने भृगुपति परशुराम रूप ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूप को नमस्कार करता हूँ। रावण का नाश करने के लिए आपने रघुवंश में भगवान राम के रूप में अवतार ग्रहण किया था। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। वैष्णवजनों तथा यदुवंशियों का पालन-पोषण करने के लिए आपने ही अपने को वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध – इस चतुर्व्यूह के रूप में प्रकट किया है। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्त्तक बुद्ध का रूप ग्रहण करेंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छप्राय हो जायेंगे, तब उनका नाश करने के लिए आप ही कल्कि के रूप में अवतीर्ण होंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
भगवन् ! ये सब-के-सब जीव आपकी माया से मोहित हो रहे हैं और इस मोह के कारण ही 'यह मैं हूँ और यह मेरा है' इस झूठे दुराग्रह में फँसकर कर्म के मार्गों में भटक रहे हैं। मेरे स्वामी ! इसी प्रकार मैं भी स्वप्न में दिखने वाले पदार्थों के समान झूठे देह-गेह, पत्नी-पुत्र और धन-स्वजन आदि को सत्य समझकर उन्हीं के मोह में फँस रहा हूँ और भटक रहा हूँ।
मेरी मूर्खता तो देखिये, प्रभो ! मैंने अनित्य वस्तुओं को नित्य अनात्मा को आत्मा और दुःख को सुख समझ लिया। भला, इस उलटी बुद्धि की भी कोई सीमा है ! इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में ही रम गया और यह बात बिल्कुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं। जैसे कोई अनजान मनुष्य जल के लिए तालाब पर जाय और उसे उसी से पैदा हुए सिवार आदि घासों से ढका देखकर ऐसा समझ ले कि यहाँ जल नहीं हैं तथा सूर्य की किरणों में झूठ-मूठ प्रतीत होने वाले जल के लिए मृगतृष्णा की ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मैं अपनी ही माया से छिपे रहने के कारण आपको छोड़कर विषयों में सुख की आशा से भटक रहा हूँ।
मैं अविनाशी अक्षर वस्तु के ज्ञान से रहित हूँ। इसी से मेरे मन में अनेक वस्तुओं की कामना और उनके लिए कर्म करने के संकल्प उठते ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त ये इन्द्रियाँ भी जो बड़ी प्रबल एवं दुर्दमनीय हैं, मन को मथ-मथकर बलपूर्वक इधर-उधर घसीट ले जाती हैं। इसीलिए इस मन को मैं रोक नहीं पाता। इस प्रकार भटकता हुआ मैं आपके उन चरणकमलों की छत्रछाया में आ पहुँचा हूँ, जो दुष्टों के लिए दुर्लभ है। मेरे स्वामी ! इसे भी मैं आपका कृपाप्रसाद ही मानता हूँ क्योंकि पद्मनाभ ! जब जीव के संसार से मुक्त होने का समय आता है, तब सत्पुरुषों की उपासना से चित्तवृत्ति आपमें लगती है।
नमो विज्ञानमात्राय सर्वप्रत्ययहेतवे।
पुरुषेशप्रधानाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।।
नमस्ते वासुदेवाय सर्वभूतक्षयाय च।
हृषीकेश नमस्तुभ्यं प्रपन्नं पाहि मां प्रभो।
प्रभो ! आप केवल विज्ञानस्वरूप हैं, विज्ञानघन हैं। जितनी भी प्रतीतियाँ होती हैं, जितनी भी वृत्तियाँ हैं, उन सबके आप ही कारण और अधिष्ठान हैं। जीव के रूप में एवं जीवों के सुख-दुःख आदि के निमित्त काल, कर्म, स्वभाव तथा प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके नियन्ता भी हैं। आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
प्रभो ! आप ही वासुदेव, आप ही समस्त जीवों के आश्रय (संकर्षण) हैं तथा आप ही बुद्धि और मन के अधिष्ठातृ देवता हृषिकेश (प्रद्युम्न और अनिरुद्ध) हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। प्रभो ! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिए।'
(श्रीमद् भागवतः 10.40.1-30)

Comments

Popular posts from this blog

प्रह्लाद द्वारा स्तुति

वेदों द्वारा स्तुति