वेदों द्वारा स्तुति
जिस प्रकार प्रातःकाल होने पर सोते हुए सम्राट को जगाने हेतु अनुजीवी बंदीजन सम्राट के पराक्रम और सुयश का गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूर्ण जगत को अपने में लीन करके आत्मारमण के हेतु योगनिद्रा स्वीकार करते हैं। तब प्रलय के अंत में श्रुतियाँ उनका इस प्रकार से यशोगान कर जगाती हैं। वेदों के तात्पर्य-दृष्टि से 28 भेद हैं, अतः यहाँ 28 श्रुतियों ने 28 श्लोकों से प्रभु की इस प्रकार से स्तुति की हैः
'अजित ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो ! आप स्वभाव से ही समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं, इसलिए चराचर प्राणियों को फँसाने वाली माया का नाश कर दीजिये। प्रभो ! इस गुणमयी माया ने दोष के लिए जीवों के आनंदादिमय सहज स्वरूप का आच्छादन करके उन्हें बंधन में डालने के लिए ही सत्त्वादि गुणों को ग्रहण किया है। जगत में जितनी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियाँ हैं, उन सबको जगानेवाले आप ही हैं। इसलिए आपको मिटाए बिना यह माया मिट नही सकती। (इस विषय में यदि प्रमाण पूछा जाये तो आपकी श्वासभूता श्रुतियाँ ही – हम प्रमाण हैं।) यद्यपि हम आपका स्वरूपतः वर्णन करने में असमर्थ हैं, परंतु जब कभी आप माया के द्वारा जगत की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसको निषेध करके स्वरूपस्थिति की लीला करते हैं अथवा अपना सच्चिदानंदस्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीड़ा करते हैं, तभी हम यत्किंचित् आपका वर्णन करने में समर्थ होती हैं। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे द्वारा इन्द्र, वरूण आदि देवताओं का भी वर्णन किया जाता है, परंतु हमारे (श्रुतियों के) सारे मंत्र अथवा सभी मंत्रद्रष्टा ऋषि, प्रतीत होने वाले इस सम्पूर्ण जगत को ब्रह्मस्वरूप ही अनुभव करते हैं। क्योंकि जिस समय यह सारा जगत नहीं रहता, उस समय भी आप बच रहते हैं। जैसे घट, शराब (मिट्टी का प्याला, कसोरा) आदि सभी विकार मिट्टी से ही उत्पन्न और प्रलय आप में ही होती है, तब क्या आप पृथ्वी के समान विकारी हैं ? नहीं-नहीं, आप तो एकरस-निर्विकार हैं। इसी से तो यह जगत आप में उत्पन्न नहीं, प्रतीत है। इसलिए जैसे घट, शराब आदि का वर्णन भी मिट्टी का ही वर्णन है। यही कारण है कि विचारशील ऋषि, मन से जो कुछ सोचा जाता है और वाणी से जो कुछ कहा जाता है, उसे आप में ही स्थित, आपका ही स्वरूप देखते हैं। मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे, ईँट, पत्थर या काठ पर होगा वह पृथ्वी पर ही, क्योंकि वे सब पृथ्वीस्वरूप ही हैं। इसलिए हम चाहे जिस नाम या जिस रूप का वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही रूप है।
भगवन् ! लोग सत्त्व, रज, तम – इन तीन गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं, परंतु आप तो उस माया नटी के स्वामी, उसको नचाने वाले हैं। इसीलए विचारशील पुरुष आपकी लीलाकथा के अमृतसागर में गोते लगाते रहते हैं और इसको अपने सारे पाप-ताप को धो-बहा देते हैं। क्यों न हो, आपकी लीला-कथा सभी जीवों के मायामल को नष्ट करने वाली जो है। पुरुषोत्तम ! जिन महापुरुषों ने आत्मज्ञान के द्वारा अंतःकरण के राग-द्वेष आदि और शरीर के कालकृत जरा-मरण आदि दोष मिटा दिये हैं और निरन्तर आपके उस स्वरूप की अनुमति में मग्न रहते हैं, जो अखण्ड आनंदस्वरूप है, उन्होंने अपने पाप-तापों को सदा के लिए शांत, भस्म कर दिया है, इसके विषय में तो कहना ही क्या है !।
भगवन् ! प्राणधारियों के जीवन की सफलता इसी में है कि वे आपका भजन-सेवा करें, आपकी आज्ञा का पालन करें; यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीर में श्वास का चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहार की धौंकनी मे हवा का आना-जाना। महत्तत्त्व, अहंकार आदि ने आपके अनुग्रह से – आपके उनमें प्रवेश करने पर ही इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय – इन पाँचों कोशों में पुरुषरूप से रहने वाले, उनमें 'मैं-मैं' की स्फूर्ति करने वाले भी आप ही हैं? आपके ही अस्तित्व से उन कोशों के अस्तित्व का अनुभव होता है और उनके न रहने पर भी अन्तिम अवधिरूप से आप विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सबमें अन्वित और सबकी अवधि होने पर भी असंग ही हैं। क्योंकि वास्तव मे जो कुछ वृत्तियों के द्वारा अस्ति अथवा नास्ति के रूप में अनुभव होता है, उन समस्त कार्य-कारणों से आप परे हैं। 'नेति-नेति' के द्वारा इन सबका निषेध हो जाने पर भी आप ही शेष रहते हैं, क्योंकि आप उस निषेध के भी साक्षी हैं और वास्तव में आप ही एकमात्र सत्य हैं। (इसलिए आपके भजन के बिना जीव का जीवन व्यर्थ ही है; क्योंकि वह इस महान सत्य से वंचित है)।
ऋषियों ने आपकी प्राप्ति के लिए अनेकों मार्ग माने हैं। उनमें जो स्थूल दृष्टिवाले हैं, वे मणिपुर चक्र में अग्निरूप से आपकी उपासना करते हैं। अरुण वंश के ऋषि समस्त नाड़ियों के निकलने के स्थान हृदय में आपके परम सूक्ष्म स्वरूप दहर ब्रह्म की उपासना करते हैं। प्रभो ! हृदय से ही आपको प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग सुषुम्ना नाड़ी ब्रह्मरन्ध्र तक गयी हुई है। जो पुरुष उस ज्योतिर्मय मार्ग को प्राप्त कर लेता है और उससे ऊपर की ओर बढ़ता है, वह फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता। भगवन् ! आपने ही देवता, मनुष्य और पशु-पक्षी आदि योनियाँ बनायी हैं। सदा-सर्वत्र सब रूपों में आप हैं ही, इसलिए कारणरूप से प्रवेश न करने पर भी आप ऐसे जान पड़ते हैं मानों, उसमें प्रविष्ट हुए हों। साथ ही विभिन्न आकृतियों का अनुकरण करके कहीं उत्तम तो कहीं अधमरूप से प्रतीत होते है, जैसे आग छोटी-बड़ी लकड़ियों और कर्मों के अनुसार प्रचुर अथवा अल्प परिमाण में या उत्तम-अधमरूप में प्रतीत होती है। इसलिए संतपुरुष लौकिक-पारलौकिक कर्मों की दुकानदारी से, उनके फलों से विरक्त हो जाते हैं और अपनी निर्मल बुद्धि से सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्मा को पहचानकर जगत के झूठे रूपों में नहीं फँसते; आपके सर्वत्र एकरस, समभाव से स्थित सत्यस्वरूप का साक्षात्कार करते हैं।
प्रभो ! जीव जिन शरीरों में रहता है, वे उसके कर्म के द्वारा निर्मित होते हैं और वास्तव में उन शरीरों के कार्य-कारणरूप आवरणों से वह रहित है, क्योंकि वस्तुतः उन आवरणों की सत्ता ही नहीं है। तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हैं कि समस्त शक्तियों को धारण करने वाले आपका ही वह स्वरूप है। स्वरूप होने के कारण अंश न होने पर भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित न होने पर भी निर्मित कहते हैं। इसी से बुद्धिमान पुरुष जीव के वास्तविक स्वरूप पर विचार करके परम विश्वास के साथ आपके चरणकमलों की उपासना करते हैं। क्योंकि आपके चरण ही समस्त वैदिक कर्मों के समर्पणस्थान और मोक्षस्वरूप हैं।
दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनोश्चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणाः।
न परिलषन्ति केचिदपवर्गमपीश्वर ते चरणसरोजहंसकुलसंगविसृष्टगृहाः।।
भगवन् ! परमात्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। उसी का ज्ञान कराने के लिए आप विविध प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृत के महासागर से भी मधुर और मादक होती है। जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्द से मग्न हो जाते हैं। कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला-कथाओं को छोड़कर मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते स्वर्ग आदि की तो बात ही क्या है। वे आपके चरणकमलों के प्रेमी परमहंसों के सत्संग में, जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानते हैं कि उसके लिए इस जीवन में प्राप्त अपनी घर-गृहस्थी का भी परित्याग कर देते हैं।
(श्रीमद् भागवतः 10.87.21)
प्रभो ! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, हितैषी, सुहृद और प्रिय व्यक्ति के समान आचरण करता है। आप जीव के हितैषी, प्रियतम और आत्मा ही हैं और सदा-सर्वदा जीव को अपनाने के लिए तैयार भी रहते हैं। इतनी सुगमता होने पर तथा अनुकूल मानव शरीर पाकर भी लोग सख्यभाव आदि के द्वारा आपकी उपासना नहीं करते, आप में नहीं रमते, बल्कि इस विनाशी और असत् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों में ही रम जाते हैं, उन्हीं की उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्मा का हनन करते हैं, उसे अधोगति में पहुँचाते हैं। भला, यह कितने कष्ट की बात है ! इसका फल शुद्ध होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ, सारी वासनाएँ शरीर आदि में ही लग जाती हैं और फिर उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आदि के न जाने कितने बुरे-बुरे शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यंत भयावह जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकना पड़ता है।
निभृतमरून्मनोऽक्षदृढ़योगयुजो हृदि यन्मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात्।
स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो वयमपि ते समाः समादृशोऽङिघ्रसरोजसुधाः।।
प्रभो ! बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इन्द्रियों के वश में करके दृढ़ योगाभ्यास के द्वारा हृदय में आपकी उपासना करते हैं। परंतु आश्चर्य की बात तो यह है कि उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है, उसी की प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते हैं। क्योंकि स्मरण तो वे भी करते ही हैं। कहाँ तक कहें, भगवन् ! वे स्त्रियाँ. जो अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी शेषनाग के समान मोटी, लंबी तथा सुकुमार भुजाओं के प्रति कामभाव से आसक्त रहती हैं, जिस परम पद को प्राप्त करती हैं, वही पद हम श्रुतियों को भी प्राप्त होता है। यद्यपि हम आपको सदा-सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारविन्द का मकरन्द रस पान करती रहती हैं। क्यों न हो, आप समदर्शी जो हैं। आपकी दृष्टि में उपासक के परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भाव में कोई अन्तर नहीं है।
(श्रीमद् भागवतः 10.87.23)
भगवन् ! आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। स्वयं ब्रह्माजी, निवृत्तिपरायण सनकादि तथा प्रवृत्तिपरायण मरीचि आदि भी बहुत पीछे आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। जिस समय आप सबको समेटकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके, क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत रहता है न तो महत्तत्त्वादि सूक्ष्म जगत। इन दोनों से बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण-मुहूर्त आदि काल के अंग भी नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँ तक की शास्त्र भी आपमें ही समा जाते हैं। (ऐसी अवस्था में आपको जानने की चेष्टा न करके आपका भजन करना ही सर्वोत्तम मार्ग है।) प्रभो ! कुछ लोग मानते हैं कि असत् जगत की उत्पत्ति होती है और कुछ कहते हैं कि सत्-रूप दुःखों का नाश होने पर मुक्ति मिलती है। दूसरे लोग आत्मा को अनेक मानते हैं तो कई लोग कर्म के द्वारा प्राप्त होने वाले लोक और परलोकरूप व्यवहार को सत्य मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ये सभी बातें भ्रममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं। पुरुष त्रिगुणमय है। इस प्रकार का भेदभाव केवल अज्ञान से ही होता है और आप अज्ञान से सर्वथा परे हैं। इसलिए ज्ञानस्वरूप आपमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है।
यह त्रिगुणात्मक जगत मन की कल्पनामात्र है। केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत से पृथक् प्रतीत होने वाला पुरुष भी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार वास्तव में असत् होने पर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ता के कारण यह सत्य-सा प्रतीत हो रहा है। इसलिए भोक्ता, भोग्य और दोनों के सम्बन्ध को सिद्ध करने वाली इन्द्रियाँ आदि जितना भी जगत है, सबको आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूप से सत्य ही मानते हैं। सोने से बने हुए कड़े, कुण्डल आदि स्वर्णरूप ही तो हैं; इसलिए उनको इस रूप में जानने वाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं, वह समझता है कि यह भी सोना है। इसी प्रकार यह जगत आत्मा में ही कल्पित, आत्मा से ही व्याप्त है, इसलिए आत्मज्ञानी पुरुष तो इसे आत्मरूप ही मानते हैं।
भगवन् ! जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभाव से आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिर पर लात मारते हैं अर्थात् उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान हों, उन्हें आप कर्मों का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों से पशुओं के समान बाँध लेते हैं। इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेम का सम्बन्ध जोड़ रखा है, वे न केवल अपने को बल्कि दूसरों को भी पवित्र कर देते हैं, जगत के बंधन से छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, आपसे विमुख लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है।
प्रभो ! आप मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि करणों से, चिन्तन, कर्म आदि साधनों से सर्वथा रहित हैं। फिर भी आप समस्त अंतःकरण और बाह्य करणों की शक्तियों से सदा-सर्वदा सम्पन्न हैं। आप स्वतः सिद्ध ज्ञानवान, स्वयंप्रकाश हैं; अतः कोई काम करने के लिए आपको इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं है। जैसे छोटे-छोटे राजा अपनी प्रजा से कर लेकर स्वयं अपने सम्राट को कर देते हैं, वैसे ही मनुष्यों के पूज्य देवता और देवताओं के पूज्य ब्रह्मा आदि भी अपने अधिकृत प्राणियों से पूजा स्वीकार करते हैं और माया के अधीन होकर आपकी पूजा करते रहते हैं। वे इस प्रकार आपकी पूजा करते हैं कि आपने जहाँ जो कर्म करने के लिए उन्हें नियुक्त कर दिया है, वे आपसे भयभीत रहकर वहीं वह काम करते रहते हैं। नित्यमुक्त ! आप मायातीत हैं; फिर भी जब अपने ईक्षणमात्र से, संकल्पमात्र के माया के साथ क्रीड़ा करते हैं, तब आपका संकेत पाते ही जीवों के सूक्ष्म शरीर और उनके सुप्त कर्म-संस्कार जग जाते हैं और चराचर प्राणियों की उत्पत्ति होती हैं। प्रभो ! आप परम दयालु हैं। आकाश के समान सबमें सम होने के कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया। वास्तव में तो आपके स्वरूप में मन और वाणी की गति ही नहीं है। आपमें कार्य-कारणरूप प्रपंच का अभाव होने से बाह्य दृष्टि से आप शून्य के समान ही जान पड़ते हैं, परंतु उस दृष्टि के भी अधिष्ठान होने के कारण आप परम सत्य हैं।
भगवन् ! आप नित्य एकरस हैं। यदि जीव असंख्य हों और सब-के-सब नित्य एवं सर्वव्यापक हों, तब तो वे आपके समान ही हो जायेंगे; उस हालत में वे शासित हैं और आप शासक, यह बात बन ही नहीं सकती और तब आप उनका नियंत्रण कर ही नहीं सकते। उनका नियंत्रण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी अपेक्षा न्यून हों। इसमें सन्देह नहीं कि ये सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है। इसलिए आप उनमें कारण रूप से रहते हुए भी उनके नियामक हैं। वास्तव में आप उनमें समरूप से स्वरूप कैसा है। क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया, उन्होंने वास्तव में आपको नहीं जाना, उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धि के विषय को जाना है, जिससे आप परे हैं। और साथ ही मति के द्वारा जितनी वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे मतियों की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न होती हैं; इसलिए उनकी दुष्टता, एक मत के साथ दूसरे मत का विरोध प्रत्यक्ष ही है। अतएव आपका स्वरूप समस्त मतों के परे है। स्वामिन् ! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहने का ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणाम के द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूप, जो आप हैं, कभी वृत्तियों के अंदर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब प्राणियों का जन्म कैसे होता है? अज्ञान के कारण प्रकृति को पुरुष और पुरुष को प्रकृति समझ लेने से, एक का दूसरे के साथ संयोग हो जाने से जैसे 'बुलबुला' नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादन-कारण जल और निमित्त-कारण वायु के संयोग से उसकी सृष्टि हो जाती है। प्रकृति में पुरुष और पुरुष में प्रकृति का अध्यास (एक में दूसरे की कल्पना) हो जाने के कारण ही जीवों के विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अंत में जैसे समुद्र में नदियाँ और मधु में समस्त पुष्पों के रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधिरहित आप में समा जाते हैं। (इसलिए जीवों की भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियंत्रित है। उनकी पृथक स्वतंत्रता और सर्वव्यापकता आदि वास्तविक सत्य को न जानने के कारण ही मानी जाती है।)
भगवन् ! सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं, अपने को आप से पृथक मानकर जन्म-मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं। परंतु बुद्धिमान पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ानेवाले हैं। यद्यपि शीत, ग्रीष्म और वर्षा इन तीन भागोंवाला कालचक्र आपका भूविलासमात्र है, वह सभी को भयभीत करता है, परंतु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भक्त हैं, उन्हें भला जन्म-मृत्युरूप संसार का भय कैसे हो सकता है?
विजितहृषिकवायुभिदान्तमनस्तरगं य इह यतन्ति यन्तुमतिलोलमुपायखिदः।
व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं वणिज इवाज सन्त्यकृतकर्णधरा जलधौ।।
अजन्मा प्रभो ! जिन योगियों ने अपनी इन्द्रियों और प्राणों को वश में कर लिया है, वे भी जब गुरुदेव के चरणों की शरण न लेकर उच्छ्रंखल एवं अत्यंत चंचल मन-तुरंग को अपने वश में करने का यत्न करते हैं, तब अपने साधनों में सफल नहीं होते। उन्हें बार-बार खेद और सैंकड़ों विपत्तियों का सामना करना पड़ता है, केवल श्रम और दुःख ही उनके हाथ लगता है। उनकी ठीक वही दशा होती है, जैसी समुद्र में बिना कर्णधार की नाव पर यात्रा करने वाले व्यापारियों की होती है। (तात्पर्य यह कि जो मन को वश में करना चाहते हैं, उनके लिए कर्णधार, गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है।)
(श्रीमद् भागवतः 10.87.33)
भगवन् ! आप अखण्ड आनंदस्वरूप और शरणागतों के आत्मा हैं। आपके रहते स्वजन, पुत्र, देह स्त्री, धन, महल, पृथ्वी, प्राण और रथ आदि से क्या प्रयोजन है? जो लोग इस सत्य सिद्धान्त को न जानकर स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध से होने वाले सुखों में ही रम रहे हैं, उन्हें संसार में भला, ऐसी कौन सी वस्तु है, जो सुखी कर सके। क्योंकि संसार की सभी वस्तुएँ स्वभाव से ही विनाशी हैं, एक-न-एक दिन मटियामेट हो जाने वाली हैं और तो क्या, वे स्वरूप से ही सारहीन और सत्ताहीन हैं; वे भला, क्या सुख दे सकती हैं।
भगवन् ! जो ऐश्वर्य, लक्ष्मी, विद्या, जाति, तपस्या आदि के घमंड से रहित हैं, वे संतपुरुष इस पृथ्वीतल पर परम पवित्र और सबको पवित्र करने वाले पुण्यमय सच्चे तीर्थस्थान हैं। क्योंकि उनके हृदय में आपके चरणारविन्द सर्वदा विराजमान रहते हैं और यही कारण है कि उन संत पुरुषों का चरणामृत समस्त पापों और तापों को सदा के लिए नष्ट कर देने वाला है। भगवन् ! आप नित्य-आनंदस्वरूप आत्मा ही है। जो एक बार भी आपको अपना मन समर्पित कर देते हैं, आपमें मन लगा देते हैं – वे उन देह – गेहों में कभी नहीं फँसते जो जीव के विवेक, वैराग्य, धैर्य, क्षमा और शांति आदि गुणों का नाश करने वाले हैं। वे तो बस, आपमें ही रम जाते हैं।
भगवन् ! जैसे मिट्टी से बना हुआ घड़ा मिट्टीरूप ही होता है, वैसे ही सत् से बना हुआ जगत भी सत् ही है; यह बात युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि कारण और कार्य का निर्देश ही उनके भेद का द्योतक है। यदि केवल भेद का निषेध करने के लिए ही ऐसा कहा जा रहा हो तो पिता और पुत्र में तथा दण्ड और घटनाश में कार्य-कारण की एकता सर्वत्र एक सी नहीं देखी जाती। यदि कारण शब्द से निमित्त-कारण न लेकर केवल उपादान-कारण लिया जाय। जैसे कुण्डल का सोना तो भी कहीं-कहीं कार्य की असत्यता प्रमाणित होती है; जैसे रस्सी में साँप। यहाँ उपादान-कारण के सत्य होने पर भी उसका कार्य सर्प अवस्था असत्य है। यदि यह कहा जाय कि प्रतीत होने वाले सर्प का उपादान-कारण केवल रस्सी नहीं है, उसके साथ अविद्या का, भ्रम का मेल भी है तो यह समझना चाहिए कि अविद्या और सत् वस्तु के संयोग से ही इस जगत की उत्पत्ति हुई है। इसलिए जैसे रस्सी में प्रतीत होने वाला सर्प मिथ्या है, वैसे ही सत् वस्तु में अविद्या के संयोग से प्रतीत होने वाला नाम-रूपात्मक जगत भी मिथ्या है। यदि केवल व्यवहार की सिद्धि के लिए ही जगत की सत्ता अभीष्ट हो तो उसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि वह पारमार्थिक सत्य न होकर केवल व्यावहारिक सत्य है। यह भ्रम अज्ञानीजन बिना विचार किये पूर्व-पूर्व के भय से प्रेरित होकर अंधपरम्परा से इसे मानते चले आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में कर्मफल की सत्य बतलानेवाली श्रुतियाँ केवल उन्ही लोगों को भ्रम में डालती हैं, जो कर्म में जड़ हो रहे हैं और यह नहीं समझते कि इनका तात्पर्य उन कर्मों में लगाने में है। भगवन् ! वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत उत्पत्ति के पहले नहीं था और प्रलय के बाद नहीं रहेगा, इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीच में भी एकरस परमात्मा में मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है। इसी से हम श्रुतियाँ इस जगत का वर्णन ऐसी उपमा देकर करती हैं कि जैसे मिट्टी में घड़ा, लोहे में शस्त्र और सोने में कुण्डल आदि नाम मात्र हैं, वास्तव में मिट्टी, लोहा और सोना ही हैं। वैसे ही परमात्मा में वर्णित जगत नाममात्र है, सत्य सर्वथा मिथ्या और मन की कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं।
भगवन् ! जब जीव माया से मोहित होकर अविद्या को अपना लेता है, उस समय उसके स्वरूपभूत आनंदादि गुण ढक जाते हैं; वह गुणजन्य वृत्तियों, इन्द्रियों और देहों में फँस जाता है तथा उन्हीं को अपना-आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है। अब उनकी जन्म-मृत्यु में अपनी जन्म-मृत्यु मानकर उनके चक्कर में पड़ जाता है। परंतु प्रभो ! जैसे साँप अपने केंचुल से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, उसे छोड़ देता है, वैसे ही आप माया-अविद्या से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, उसे सदा-सर्वदा छोड़े रहते हैं। इसी से आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य सदा-सर्वदा आपके साथ रहते हैं। अणिमा आदि अष्टसिद्धियों से युक्त परमैश्वर्य में आपकी स्थिति है। इसी से आपका ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और सीमा से आबद्ध नहीं है। भगवन् ! यदि मनुष्य यति-योगी होकर भी अपने हृदय की विषय वासनाओं को उखाड़ नहीं फेंकते तो उन असाध्यों के लिए आप हृदय में रहने पर भी वैसे ही दुर्लभ हैं, जैसे कोई अपने गले में मणि पहने हुए हो, परंतु उसकी याद न रहने पर उसे ढूँढता फिरे इधर-उधर। जो साधक अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे रहते हैं, विषयों से विरक्त नहीं होते, उन्हें जीवनभर और जीवन के बाद भी दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता है। क्योंकि वे साधक नहीं, दम्भी हैं। एक तो अभी उन्हें मृत्यु से छुटकारा नहीं मिला है, लोगों को रिझाने, धन कमाने आदि के क्लेश उठाने पड़ रहे हैं और दूसरे आपका स्वरूप न जानने के कारण अपने धर्म-कर्म का उल्लंघन करने से परलोक में नरक आदि प्राप्त होने का भय भी बना ही रहता है।
भगवन् ! आपके वास्तविक स्वरूप को जानने वाला पुरुष आपके दिये हुए पुण्य और पापकर्मों के फल सुख एवं दुःखों को नहीं जानता, नहीं भोगता, वह भोग्य और भोक्तापन के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस समय विधिनिषेध के प्रतिपादक शास्त्र भी उससे निवृत्त हो जाते हैं; क्योंकि वे देहाभिमानियों के लिए हैं। उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता। जिसे आपके स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युग में की हुई लीलाओं, गुणों का गान सुन-सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृदय में बिठा लेता है तो अनन्त, अचिन्तय, दिव्य गुणगणों के निवासस्थान प्रभो ! आपका वह प्रेमी भक्त भी पाप-पुण्यों के फल सुख-दुःखो और विधि-निषेधों से अतीत हो जाता है, क्योंकि आप ही उनकी मोक्षस्वरूप गति हैं। (परंतु इन ज्ञानी और प्रेमियों को छोड़कर और सभी शास्त्र बंधन में हैं तथा वे उसका उल्लंघन करने पर दुर्गति को प्राप्त होते हैं।)
भगवन् ! स्वर्गादि लोकों के अधिपति इन्द्र, ब्रह्मा प्रभृत्ति भी आपकी थाह-आपका पार न पा सके और आश्चर्य की बात तो यह है कि आप भी उसे नहीं जानते। क्योंकि जब अंत है ही नहीं तब कोई जानेगा कैसे?प्रभो ! जैसे आकाश में हवा से धूल के नन्हें-नन्हें कण उड़ते रहते हैं, वैसे ही आपमें काल के वेग से अपने से उत्तरोत्तर दस गुने सात आवरणों के सहित असंख्य ब्रह्माण्ड एक साथ ही घूमते रहते हैं। तब भला, आपकी सीमा कैसे मिले।
हम श्रुतियाँ भी आपके स्वरूप का साक्षात् वर्णन नहीं कर सकतीं, आपके अतिरिक्त वस्तुओं का निषेध करते-करते अंत में अपना भी निषेध कर देती हैं और आप में अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती हैं।'
(श्रीमद् भागवतः 10.87.14-41)
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