देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति
जब-जब पृथ्वी पर धर्म की हानि तथा अधर्म की वृद्धि होती है भगवान पृथ्वी पर अवतार लेते हैं। मथुरा नगरी में कंस के अत्याचार प्रजाजन पर दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे और वह यदुवंशियों को भी नष्ट करता जा रहा था। भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ने असुरों के विनाश हेतु पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए वसुदेव-पत्नी देवकी गर्भ में प्रवेश किया और तभी देवकी के शरीर की कांति से कंस का बंदीगृह जगमगाने लगा। भगवान शंकर, ब्रह्माजी, देवर्षि नारद तथा अन्य देवता कंस के कारागार में आकर सबकी अभिलाषा पूर्ण करने वाले प्रभु श्रीहरि की सुमधुर वचनों से इस प्रकार स्तुति करते हैं-
'प्रभो ! आप सत्यसंकल्प है। सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है। सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात् और संसार की स्थिति के समय – इन असत्य अवस्थाओं में भी आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन पाँच दृश्यमान सत्यों के आप ही कारण हैं और उनमें अन्तर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। आप इस दृश्यमान जगत के परमार्थरूप हैं। आप ही मधुर वाणी और समदर्शन के प्रवर्त्तक हैं। भगवन् ! आप तो बस, सत्यस्वरूप ही हैं। हम सब आपकी शरण में आये हैं। यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है एक प्रकृति। इसके दो फल हैं – सुख और दुःख, तीन जड़े हैं सत्त्व, रज और तम, चार रस हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके जानने के पाँच प्रकार हैं – श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका। इसके छः स्वभाव हैं – पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल है सात धातुएँ – रस, रूधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। आठ शाखाएँ हैं – पाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें मुख आदि नवों द्वार खोडर हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय – ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसार रूप वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एकमात्र आप ही हैं। आप में ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है। जिनका चित्त आपकी माया से आवृत्त हो रहा है, इस सत्य को समझने की शक्ति खो बैठा है – वे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाले ब्रह्मादि देवताओं को अनेक दीखते हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूप में केवल आपके ही दर्शन करते हैं।
आप ज्ञानस्वरूप आत्मा हैं। चराचर जगत के कल्याण के लिए ही अनेकों रूप धारण करते हैं। आपके वे रूप विशुद्ध, अप्राकृत, सत्त्वमय होते हैं और संतपुरुषों को बहुत सुख देते हैं। साथ ही दुष्टों को उनकी दुष्टता का दण्ड भी देते हैं। उनके लिए अमंगलमय भी होते हैं।
त्वय्यबुजाक्षाखिलसत्त्वधाम्नि समाधिनाऽऽवेशितचेतसैके।
त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन कुर्वन्ति गोवत्सपदं भवाब्धिम्।।
स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन् भवार्णवं भीममदभ्रसौहृदाः।
भवत्पदाम्भोरुहनावमत्र ते निधाय याताः सदनुग्रहो भवान्।।
कमल के समान कोमल अनुग्रह-भरे नेत्रों वाले प्रभो ! कुछ विरले लोग ही आपके समस्त पदार्थों और प्राणियों के आश्रयस्वरूप रूप में पूर्ण एकाग्रता से अपना चित्त लगा पाते हैं और आपके चरणकमलरूपी जहाज का आश्रय लेकर इस संसारसागर को बछड़े के खुर के गढ़े के समान अनायास ही पार कर जाते हैं। क्यों न हो, अब तक के संतों ने इसी जहाज से संसारसागर को पार जो किया है।
परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आपके भक्तजन सारे जगत के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं। वे स्वयं तो इस भयंकर और कष्ट से पार करने योग्य संसारसागर को पार कर ही जाते हैं, किंतु औरों के कल्याण के लिए भी वे यहाँ आपके चरणकमलों की नौका स्थापित कर जाते हैं। वास्तव में सत्पुरुषों पर आपकी महान कृपा है। उनके लिए आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं।
(श्रीमद् भागवतः 10.2.30.31)
कमलनयन ! जो लोग आपके चरणकमलों की शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभाव से रहित होने के कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपने को झूठ-मूठ मुक्त मानते हैं। वास्तव में तो वे बद्ध ही हैं। वे यदि बड़ी तपस्या और साधना का कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचे-से-ऊँचे पद पर भी पहुँच जायें तो भी वहाँ से नीचे गिर जाते हैं।
परंतु भगवन् ! जो आपके निज जन है, जिन्होंने आपके चरणों में अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियों की भाँति अपने साधन मार्ग से गिरते नहीं। प्रभो ! वे बड़े-बड़े विघ्न डालने वालों की सेना के सरदारों के सिर पर पैर रखकर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकता; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं।
आप संसार की स्थिति के लिए समस्त देहधारियों को परम कल्याण प्रदान करने वाले विशुद्ध सत्त्वमय, सच्चिदानंदमय परम दिव्य मंगल-विग्रह प्रकट करते हैं। उस रूप के प्रकट होने से ही आपके भक्त वेद, कर्मकाण्ड, अष्टाँग-योग, तपस्या और समाधि के द्वारा आपकी आराधना करते हैं। बिना किसी आश्रय के वे किसकी आराधना करेंगे? प्रभो ! आप सबके विधाता हैं। यदि आपका यह विशुद्ध सत्त्वमय निज स्वरूप न हो तो अज्ञान और उसके द्वारा होने वाले भेदभाव को नष्ट करने वाला अपरोक्ष ज्ञान ही किसी को न हो। जगत में दिखने वाले तीनों गुण आपके हैं और आपके द्वारा ही प्रकाशित होते हैं, यह सत्य है। परंतु इन गुणों की प्रकाशक वृत्तियों से आपके स्वरूप का केवल अनुमान ही होता है, वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता। (आपके स्वरूप का साक्षात्कार तो आपके इस विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप की सेवा करने पर आपकी कृपा से ही होता है।) भगवन् ! मन और वेद-वाणी के द्वारा केवल आपके स्वरूप का अनुमानमात्र होता है क्योंकि आप उनके द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हैं। इसलिए आपके गुण, जन्म और कर्म आदि के द्वारा आपके नाम और रूप का निरूपण नहीं किया जा सकता। पिर भी प्रभो ! आपके भक्तजन उपासना आदि क्रियायोगों के द्वारा आपका साक्षात्कार तो करते ही हैं। जो पुरुष आपके मंगलमय नामों और रूपों का श्रवण, कीर्तन, स्मरण और ध्यान करता है और आपके चरणकमलों की सेवा में ही अपना चित्त लगाये रहता है, उसे फिर जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्र में नहीं आना पड़ता। सम्पूर्ण दुःखों के हरने वाले भगवन् ! आप सर्वेश्वर है। यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही है। आपके अवतार से इसका भार दूर हो गया। धन्य है ! प्रभो ! हमारे लिए यह बड़े सौभाग्य की बात है कि हम लोग आपके सुन्दर-सुन्दर चिह्नों से युक्त चरणकमलों के द्वारा विभूषित पृथ्वी को देखेंगे और स्वर्गलोक को भी आपकी कृपा से कृतार्थ देखेंगे। प्रभों ! आप अजन्मा हैं। यदि आपके जन्म के कारण के सम्बन्ध में हम कोई तर्क न करें तो यही कह सकते है कि यह आपका एक लीला-विनोद है। ऐसा करने का कारण यह है कि आप द्वैत के लेश से रहित सर्वाधिष्ठानस्वरूप हैं और इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय अज्ञान के द्वारा आप में आरोपित हैं।
प्रभो ! आपने जैसे अनेकों बार मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वाराह, हंस, राम, परशुराम और वामन अवतार धारण करके हम लोगों की और तीनों लोकों की रक्षा की है, वैसे ही आप इस बार भी पृथ्वी का भार हरण कीजिये। यजुनन्दन ! हम आपके चरणों में वन्दना करते हैं।
(श्रीमद् भागवतः 10.2.26-40)
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