गजेन्द्र द्वारा स्तुति

क्षीरसागर के मध्य में मरकतमणियों से सुशोभित 'त्रिकूट' पर्वत था। उस पर वरुण देव का 'ऋतुमान' नाम का एक सुंदर उद्यान था, जिसमें देवांगनाएँ क्रीड़ा करती रहती थीं। उद्यान में सुनहले कमलोंवाला एक सरोवर था। उसमें ग्रीष्म-संतप्त गजराज अपनी प्रियाओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। अचानक एक बलवान ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया और वह जल में उसे खींचने लगा। गजराज और उसकी प्रिया हथिनियों का रक्षा-प्रयत्न जब सर्वथा विफल हो गया तो गजेन्द्र ने असहाय भाव से सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रय भगवान की इस प्रकार से स्तुति कीः
'जो जगत के मूल कारण हैं और सबके हृदय में पुरुष के रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसार में चेतनता का विस्तार होता है, उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ। यह संसार उन्हीं में स्थित है, उन्हीं की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण प्रकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। यह विश्व प्रपंच उन्हीं की माया से उनमें अध्यस्त है। यह उनमें कभी प्रतीत होता है तो कभी नहीं। परंतु उनकी दृष्टि ज्यों-की-त्यों एक-सी रहती हैं। वे इसके साक्षी हैं और उन दोनों को ही देखते रहते हैं। वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं। कोई दूसरा उनका कोई कारण नहीं है। वे ही समस्त कार्य और कारणों से अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें। प्रलय के समय लोक, लोकपाल और इन सबके कारण सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल अत्यंत घना और गहरा अंधकार-ही-अंधकार रहता है। परंतु अनन्त परमात्मा उससे सर्वथा परे विराजमान रहते हैं। वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें। उनकी लीलाओं का रहस्य जानना बहुत ही कठिन है। वे नट की भाँति अनेकों वेष धारण करते हैं। उनके वास्तविक स्वरूप को न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही, फिर दूसरा ऐसा कौन प्राणी है, जो वहाँ तक जा सके और उसका वर्णन कर सके? वे प्रभु मेरी रक्षा करें। जिनके परम मंगलमय स्वरूप का दर्शन करने के लिए महात्मागण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देते हैं और वन में जाकर अखण्डभाव से ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं तथा अपने आत्मा को सबके हृदय में विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते हैं। वे ही मुनियों के सर्वस्व भगवान मेरे सहायक हैं, वे ही मेरी गति हैं।
न उनके जन्म-कर्म हैं और न नाम-रूप, फिर उनके सम्बन्ध में गुण और दोष की तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है? फिर भी विश्व की सृष्टि और संहार करने के लिए समय-समय पर वे उन्हें अपनी माया से स्वीकार करते हैं। उन्हीं अनन्त, शक्तिमान सर्वैश्वर्यमय परब्रह्म परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। वे अरूप होने पर भी बहुरूप हैं। उनके कर्म अत्यंत आश्चर्यमय हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ।
स्वयंप्रकाश, सबके साक्षी परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मन, वाणी और चित्त से अत्यंत दूर हैं – उन परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।
विवेकी पुरुष कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा अपना अंतःकरण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते हैं तथा जो स्वयं तो नित्यमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप हैं ही, दूसरों को कैवल्य-मुक्ति देने का सामर्थ्य भी केवल उन्हीं में है उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ। जो सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों का धर्म स्वीकार करके क्रमशः शांत, घोर और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेदरहित समभाव से स्थित एवं ज्ञानघन प्रभु को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आप सबके स्वामी, समस्त क्षेत्रों के एकमात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप स्वयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार। आप समस्त इन्द्रिय और उनके विषयों के द्रष्टा हैं, समस्त प्रतीतियों के आधार हैं। अहंकार आदि छायारूप असत् वस्तुओं के द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है। समस्त वस्तुओं की सत्ता के रूप में भी केवल आप ही भास रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है तथा कारण होने पर भी आपमें विकार या परिणाम नहीं होता, इसलिए आप अनोखे कारण हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार ! जैसे समस्त नदी-झरने आदि का परम आश्रय समृद्ध है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रों के परम तात्पर्य हैं। आप मोक्षस्वरूप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं, अतः आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जैसे यज्ञ के काष्ठ अरणि में अग्नि गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञान को गुणों की माया से ढक रखा है। गुणों में क्षोभ होने पर उनके द्वारा विविध प्रकार की सृष्टि-रचना का आप संकल्प करते हैं। जो लोग कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा आत्मतत्त्व की भावना करके वेद-शास्त्रों से ऊपर उठ जाते हैं, उनके आत्मा के रूप में आप स्वयं ही प्रकाशित हो जाते हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बंधन काट दे, वैसे ही आप मेरे जैसे शरणागतों की फाँसी काट देते हैं। आप नित्यमुक्त हैं, परम करूणामय हैं और भक्तों का कल्याण करने में आप कभी आलस्य नहीं करते। आपके चरणों में मेरा नमस्कार है। समस्त प्राणियों के हृदय में अपने अंश के द्वारा अंतरात्मा के रूप में आप उपलब्ध होते रहते हैं। आप सर्वैश्वर्यपूर्ण एवं अनन्त हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पत्ति और स्वजनों में आसक्त हैं उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यंत कठिन है। क्योंकि आप स्वयं गुणों की आसक्ति से रहित हैं। जीवनमुक्त पुरुष अपने हृदय में आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। उन सर्वैश्वर्यपूर्ण, ज्ञानस्वरूप भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य उन्हीं का भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकार का सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे ही परम दयालु प्रभु मेरा उद्धार करें। जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्हीं की शरण में रहते हुए उनसे किसी भी वस्तु की यहाँ तक कि मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते, केवल उनकी परम दिव्य मंगलमयी लीलाओं का गान करते हुए आनंद के समुद्र में निमग्न रहते हैं।
तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे।।
जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यंत सूक्ष्म हैं, जो अत्यंत निकट रहने पर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं, जो आध्यात्मिक योग अर्थात् ज्ञानयोग या भक्तियोग के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हीं आदिपुरुष, अनन्त ज्ञानयोग या भक्तियोग के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ।
(श्रीमद् भागवतः 8.3.21)
जिनकी अत्यंत छोटी कला से अनेकों नाम-रूप के भेदभाव से युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकों की सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आग से लपटें और प्रकाशमान सूर्य से उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर, जो गुणों के प्रवाहरूप हैं, बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान न देवता हैं और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक। वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बचता रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे ही परमात्मा मेरे उद्धार के लिए प्रकट हों। मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योनि बाहर और भीतर सब ओर से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है? मैं तो आत्मप्रकाश को ढकने वाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है। इसलिए मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ जो विश्वरहित होने पर भी विश्व के रचयिता और विश्वस्वरूप हैं, साथ ही जो विश्व की अतंरात्मा के रूप में विश्वरूप सामग्री से क्रीड़ा भी करते रहते हैं, उन अजन्मा परम पद स्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ। योगी लोग योग के द्वारा कर्म, कर्म-वासना और कर्मफल को भस्म करके अपने योगशुद्ध हृदय में जिन योगेश्वर भगवान का साक्षात्कार करते हैं, उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।
प्रभो ! आपकी तीन शक्तियों सत्त्व, रज और तम के रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मन के विषयों के रूप में भी आप ही प्रतीत हो रहे हो। इसलिए जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वे तो आपकी प्राप्ति का मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति अनन्त हैं। आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आपकी माया अहंबुद्धि से आत्मा का स्वरूप ढक गया है, इसी से यह जीव अपने स्वरूप को नहीं जान पाता। आपकी महिमा अपार है। उन सर्वशक्तिमान एवं माधुर्यनिधि भगवान की मैं शरण में हूँ।
(श्रीमद् भागवतः 8.3.2-21)

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