दक्ष प्रजापति द्वारा स्तुति
दक्ष प्रजापति ने जल, थल और आकाश में रहने वाले देवता, असुर एवं मनुष्य आदि प्रजा की सृष्टि अपने संकल्प से की थी। परंतु जब उन्होंने देखा कि वह सृष्टि बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने विन्ध्याचल के निकटवर्ती पर्वतों पर जाकर 'अघमर्षण' नामक श्रेष्ठ तीर्थ में घोर तपस्या की तथा प्रजावृद्धि की कामना से इन्द्रियातीत भगवान की 'हंसगुह्य' नामक स्तोत्र से स्तुति की, जो इस प्रकार हैः
'भगवन् ! आपकी अनुभूति, आपकी चित्-शक्ति अमोघ है। आप जीव और प्रकृति से परे, उनके नियन्ता और उन्हें सत्ता-स्फूर्ति देने वाले हैं। जिन जीवों ने त्रिगुणमयी सृष्टि को ही वास्तविक सत्य समझ रखा है, वे आपके स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर सके हैं, क्योंकि आप तक किसी भी प्रमाण की पहुँच नहीं है। आपकी कोई अवधि, कोई सीमा नहीं है।
आप स्वयं प्रकाश और परात्पर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। यों तो जीव और ईश्वर एक-दूसरे से सखा हैं तथा इसी शरीर में इकट्ठे ही निवास करते हैं, परंतु जीव सर्वशक्तिमान आपके सख्यभाव को नहीं जानता। ठीक वैसे ही, जैसे – रूप, रस, गंध आदि विषय अपने प्रकाशित करने वाली नेत्र, घ्राण आदि इन्द्रियवृत्तियों को नहीं जानते। क्योंकि आप जीव और जगत के द्रष्टा हैं, दृश्य नहीं। महेश्वर ! मैं आपके श्रीचरणों में नमस्कार करता हूँ। देह, प्राण, इन्द्रिय, अंतःकरण की वृत्तियाँ, पंचमहाभूत और इनकी तन्मात्राएँ – ये सब जड़ होने के कारण अपने को और अपने से अतिरिक्त को भी नहीं जानते। परंतु जीव इन सबको और इनके कारण सत्त्व, रज और तम – इन तीन गुणों को भी जानता है। परंतु वह भी दृश्य अथवा ज्ञेयरूप से आपको नहीं जान सकता क्योंकि आप ही सबके ज्ञाता और अनन्त हैं। इसलिए प्रभो ! मैं तो केवल आपकी स्तुति करता हूँ। जब समाधिकाल में प्रमाण, विकल्प और विपर्यरूप विविध ज्ञान और स्मरणशक्ति का लोप हो जाने से इस नाम-रूपात्मक जगत का निरूपण करने वाला मन उपरत हो जाता है, उस समय बिना मन के भी केवल सच्चिदानंदमयी अपनी स्वरूपस्थिति के द्वारा आप प्रकाशित होते रहते हैं। प्रभो ! आप शुद्ध हैं और शुद्ध हृदय-मन्दिर ही आपका निवास स्थान है। आपको मेरा नमस्कार है। जैसे याज्ञिक लोग काष्ठ में छिपी हुई अग्नि को 'सामिधेनी' नाम के पन्द्रह मन्त्रों के द्वारा प्रकट करते हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष अपनी सत्ताइस शक्तियों के भीतर गूढ़ भाव से छिपे हुए आपको अपनी शुद्ध बुद्धि के द्वारा हृदय में ही ढूँढ निकालते हैं। जगत में जितनी भिन्नताएँ दीख पड़ती हैं वे सब माया की ही हैं। माया का निषेध कर देने पर केवल परम सुख के साक्षात्कारस्वरूप आप ही अवशेष रहते हैं। परंतु जब विचार करने लगते हैं, तब आपके स्वरूप में माया की उपलब्धि-निर्वचन नहीं हो सकता अर्थात् माया भी आप ही हैं। अतः सारे नाम और सारे रूप आपके ही हैं। प्रभो ! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। मुझे आत्मप्रसाद से पूर्ण कर दीजिये। प्रभो ! जो कुछ वाणी से कहा जाता है अथवा जो कुछ मन, बुद्धि और इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है वह आपका स्वरूप नहीं है, क्योंकि वह तो गुणरूप है और आप गुणों की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान हैं। आप में केवल उनकी प्रतीतिमात्र है। भगवन् ! आप में ही यह सारा जगत स्थित है, आप से ही निकला है और आपने और किसी के सहारे नहीं अपने-आप से ही इसका निर्माण किया है। यह आपका ही है और आपके लिए ही है। इसके रूप में बनने वाले भी आप हैं और बनानेवाले भी आप ही हैं। बनने-बनाने की विधि भी आप ही हैं। आप ही सबसे काम लेने वाले भी हैं। जब कार्य और कारण का भेद नहीं था, तब भी आप स्वयंसिद्ध स्वरूप से स्थित थे। इसी से आप सबके कारण भी हैं। सच्ची बात तो यह है कि आप जीव जगत के भेद और स्वगतभेद से सर्वथा रहित एक, अद्वितिय हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। आप मुझ पर प्रसन्न हों।
प्रभो ! आपकी ही शक्तियाँ वादी-प्रतिवादियों के विवाद और संवाद (एकमत्य) का विषय होती हैं और उन्हें बार-बार मोह में डाल दिया करती हैं। आप अनन्त अप्राकृत कल्याण-गुणगणों से युक्त एवं स्वयं अनन्त हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। भगवन् ! उपासक लोग कहते हैं कि हमारे प्रभु हस्त-पादादि से युक्त साकार-विग्रह हैं और सांख्यवादी कहते हैं की भगवान हस्त-पादादि विग्रह से रहित निराकार हैं। यद्यपि इस प्रकार वे एक ही वस्तु के दो नहीं है। क्योंकि दोनों एक ही परम वस्तु में स्थित हैं। बिना आधार के हाथ-पैर आदि का होना सम्भव नहीं और निषेध की भी कोई-न-कोई अवधि होनी ही चाहिए। आप वही आधार और निषेध की अवधि हैं। इसलिए आप साकार, निराकार दोनों से ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं।
योऽनुग्रहार्थं भजतां पादमूलमनामरूपो भगवाननन्तः।
नामानि रूपाणि च जन्मकर्मभिर्भेजे स मह्यं परमः प्रसीदतु।।
प्रभो ! आप अनन्त हैं। आपका न तो कोई प्राकृत नाम है और न कोई प्राकृत रूप, फिर भी जो आपके चरणकमलों का भजन करते हैं, उन पर अनुग्रह करने के लिए आप अनेक रूपों में प्रकट होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन-उन रूपों एवं लीलाओं के अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं। परमात्मन् ! आप मुझ पर कृपा-प्रसाद कीजिए।
(श्रीमद् भागवतः 6.4.33)
लोगों की उपासनाएँ प्रायः साधारण कोटि की होती हैं। अतः आप सबके हृदय में रहकर उनकी भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के रूप में प्रतीत होते रहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे हवा गन्ध का आश्रय लेकर सुगन्धित प्रतीत होती है, परंतु वास्तव में सुगन्धित नहीं होती। ऐसे सबकी भावनाओं का अनुसरण करने वाली प्रभु मेरी अभिलाषा पूर्ण करें।'
(श्रीमद् भागवतः 6.4.23-34)
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